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Bhavna Thaker

Tragedy

4  

Bhavna Thaker

Tragedy

जाने कब

जाने कब

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314


क्या जानें कब लिख पाऊँगी

हर महिलाओं की आज़ादी का आनंदगान

या हर लड़कियों को मिले

खुद के मुक्त गगन का शौर्यगान ?


फ़िलहाल तो कलयुगी के मध्याह्न पर

ठहरी कुप्रथाओं की जंजीरों में जकड़ी

गई नारियों की वेदना और मांग उज़डी

विधवाओं की ललक लिख रही हूँ...

 

हाँ नहीं आया अभी वक्त

बंद पड़ी है बहुत सारी नारियां कुंठित

और दयनीय हालात की मारी दहलीज़ के भीतर...

 

ऐसी नारियों के सरताज को

शर्मिंदगी खा क्यूँ नहीं जाती

जो दमन को अपना अधिकार समझते

रौंदते रहते है मासूमों के अरमानों को...


सुबकते सपने बिलखती इच्छाएं

बलात्कार के चुभते नश्तर और दहेज रुपी दानव से

शापित आत्माओं को महसूस कर रही है मेरी कलम की स्याही..  

कीड़ों की तरह रेंगते है सारे अत्याचार मेरे दिमाग के कोनों में

जो सहता आ रहा है सदियों से मासूम नारियों का एक समूह..


युगांतर से चली आ रही विधवाओं की पीड़ लिखूँ

या पितृसत्तात्मक वाली सोच की महिमा लिखूँ

कालजयी वेदनाओं का सार और वर्तमान में

बलात्कार से त्रस्त बच्चियों की चीखों को लिखना है मुझे...

 

ख़त्म हो कभी वहशिपन दरिंदों का तो

पिड़ीता के भीतर दहकती आग से पन्नों पर

स्वर्ण अक्षरों में आज़ादी का गान लिखूँ...

पर दूर दिसती है वो भोर जिस भोर को

प्रज्वलित करेगा कोई सुवर्ण युग

उस युग में आँखें खोलेगी हर पिड़ीता और

देखेगी एक नया झिलमिलाता नया आलोक...


संभवामि युगे युगे का वचन देने वाले

कृष्ण को महसूस क्यूँ नहीं होता वेदनाओं का भार

हे जादुगर अब तो जन्म लो हरो पृथ्वी से

अबलाओं की सिसकियों का सार...


लिखनी है मुझे हर होठों की मुस्कान

लिखनी है मुझे उम्मीदों की आँधी और आज़ादी की अनुगूँज

उस युग की तलाश में भटक रही है मेरी कल्पनाओं की पुकार... 


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