इंसान कितना होगा नंगा
इंसान कितना होगा नंगा


हे इंसान कितना और ज्यादा होगा नँगा है
बिन रुह के हुआ जिस्म तेरा मुर्दा परिंदा है
दया, रहम, प्रेम सब गुण ही तेरे खो गये है सत्य,
अहिंसा, सदाचार सब ही तेरे रो गये हैं
शीशा होकर क्यों लेता पत्थरो से पंगा है
ख़ुद की ख़ुदी का क्यों तोड़ रहा कंघा है
काले कर्मों से हो रहा चेहरा तेरा मन्दा है
हे इंसान कितना और ज़्यादा होगा नंगा है
टूटेगा, बिखरेगा कहीं न नज़र तू आयेगा
माटी का पुतला होकर क्यो करता दंगा है
रोशनी खो चुका आज फ़लक का चंदा है
अपनी भीतर लौ बुझा चुका हर बन्दा है
क्या होगा इंसान तेरा, सोचकर कर्म कर,
आज इंसान कर्म तेरा हो गया बड़ा गंदा है
छोड़ भी दे, सत्य की चादर ओढ़ भी ले,
बिना जुगनू के कब तक रहेगा तू जिंदा है
हे इंसान तू सत्य का दरिया बनकर बह,
फिर देख खत्म होगा पानी तेरा गंदा है
हे इंसान गिर तू बस झरना बनकर ही गिर,
चट्टानों से टकराकर जल तेरा होगा गंगा है।