मानव मन
मानव मन
कत्ल-ए-आम देखकर दहलता है मन
जाने कब होगा हैवानियत का दमन,
नित हुआ बालाओं का चीर हरण
देखकर रुसवाई आंखें हुई नमन,
महका हुआ आंगन उजड़ गया चमन
कहने मात्र ही रही बेटियां कंचन,
सर्वत्र दुर्गंध बिखेर रही पवन
मुर्दा जिस्म के सीने में होती है जलन,
धर्म पूजा-पाठ निष्फल हुए हवन
चिंतन छोड़कर हुआ आत्मा का हनन,
प्रतिक्षण दिखते हैं नए-नए संस्करण
हर रूप में हुई महज इंसानियत नग्न,
सुनकर हाहाकार मन करता क्रंदन
एक दिन बदलेगा "पूर्णिमा" मानव मन!