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अर्चना राज चौबे

Tragedy

4.2  

अर्चना राज चौबे

Tragedy

अजनबी

अजनबी

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अपनी अस्वीकृति और हो सके तो कठोर अस्वीकृति दो मुझे 

छूटना सहज नहीं पर अब वक्त हो चला है साथी 

अब वक्त हो चला है कि हम अपनी अपनी आत्माओं पर अलग अलग गीत लिखें 

अलग अलग राग रचें 

अब वक़्त हो चला है कि समय का एक छोर तुम थामो दूसरा मैं, 


प्रेम धूमिल नहीं होता न हो सकता है 

जैसे धूमिल होती है वीणा न कि उसकी टंकार 

जैसे धूमिल होती है बाँसुरी न कि उसके स्वर 

कि जैसे एक वक्त के बाद धूमिल हो जाता है स्पर्श न कि उसकी अनुभूति, 


प्रेम गुफाओं में धरी आदिकालीन वस्तु नहीं जिसे अन्य को सौंपा जा सके 

प्रेम देह में उठती मीठी पीड़ा भर नहीं जिसे संसर्ग से मिटाया जा सके 

प्रेम तो भित्तियों पर उकेरी वो कथा है जो सदियां पूरे जतन से सुरक्षित रखती हैं, 


खंडहरों से अश्रु टपकते देखा है कभी 

या कभी सुना है किसी स्तब्ध निशा में रूदन के भटके हुये कुछ स्वर 

यदि नहीं तो अपनी आँखें और अपने कान खुले रखो साथी 

कि ऐसे ही वीरानों में गूंजती है आवाज 

चलो इक बार फिर से अजनबी बन जायें हम दोनों। 


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