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Amit Kumar

Abstract Tragedy

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Amit Kumar

Abstract Tragedy

इंसान कहीं खो गया है.....

इंसान कहीं खो गया है.....

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दुनिया का दस्तूर निराला है

हर कोई मुहब्बत करने वाला है

कुछ लोग बहक जाते है

कच्चे लालच को आधार मानकर

और उसी से इस दुनिया का

हर अंदाज़ बदलने वाला है

कहने को धर्म समाज जात-पात

भाषा-भाषी आदि का अनादि झगड़ा है

लेकिन जहां मतलब सिद्ध हो सकता है

वहाँ इंसान की इंसानियत का भंगड़ा है

कहने को हम इंसान है

सच कहूं तो सिर्फ कहने को

अब हमसे जानवर भी ज़्यादा

इंसानियत रखते है वो बेचारे मूक बधिर

न कुछ कहते न कुछ सुनते है

फिर इंसान को देखो अपना ठीकरा

उनके ही सर फोड़ डाला है

अब नहीं कोई अपना पराया

सब सपनों की बातें है

झूठे और मक्कार इस आदमी ने

सिर्फ खोखले ज्ञान के पर्चे बाटें है

आवारा है या बंजारा है या दीवाना हो गया

जाने कितने युग बीते है

इंसान कहीं पर खो गया है

इंसान कहीं पर खो गया है.......

       


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