बंधुआ मजदूर
बंधुआ मजदूर
गरीबी का मारा हुआ था मैं
खाना भी मुश्किल से जुटाता मैं
किसी को ना था फिक्र मेरी
दिन - रात श्रम करता था मैं।
चुकाना था मुझे बच्चों की फीस
देना था मुझे दवाईयों की फीस
इस वक्त ना था पैसा ना कोई काम
कैसे चुकाता मैं सबकी फीस।
सोचा बनूं मैं बंधुआ मजदूर
और चुका दूं सबकी फीस
कहाँ पता इतने जुल्म होते हैं
बनने पर बंधुआ मजदूर।
दिन - रात काम करने पर भी
उसकी सही कीमत नहीं मिलती
जताते सारा हक मालिकाना का
और भूल जाते है हक नौकरों का भी।
साहब - साहब फीस चुकाना है
गुहार लगाया हजारों बार
पहले काम करना है आज्ञा आया
फिर पैसा लेने सोचना है।
मुंह मोड़ गए भगवान् भी
ये सब तो फिर भी इंसान है
जीवन भर गरीबी से मारा गया
गरीबी में ही जीवन त्यागा।