प्रेम
प्रेम
बेहद ठंडा सा कुछ सतह के नीचे से निकला
छू गया भर गया पोर-पोर में ,
ज़मीन अचकचा उठी
आँखें फैलने लगीं नमी की कौतुक से
उसकी जगह ये कौन आ गया है
छेक लिया है सारा का सारा अन्तःस्थल
पसर गया है लापरवाही से ,
सांझ ढलते ही ज़वाब भी मिला
जब आइना चटक गया सुख के अतिरेक से
फूल बहक उठे
रो पड़ी तकलीफ
मन हंस पडा ,
ये आग है भगोड़ी
छुपती फिरती थी ज्वालामुखियों से अनंत काल से
अब प्रेम ने शीतल कर दिया है
कि अब जो ये जलती भी है रगों में तो बड़ी ठंडी-ठंडी
शरद के शहद जैसी,
आत्मा नहा उठी है अनायास ही प्रेम में ,,,प्रेम के स्पर्श में !!