शहर अपना
शहर अपना
देखना चाहती हूं
तुम्हारी आंखों से
शहर अपना ....
बहुत अरसा हुआ
देखें हुए नगर अपना
बीत गई सदियां
वहां से रूखसत हुए
गैरों की बस्ती में
आशियाना हुआ
याद बहुत आतें हैं
वक्त बे वक्त
गली, मोहल्ले
चौक और चौबारे
काश ... काश के
कभी ऐसा हो जाता
बचपन के सुहाने दिन
लौटकर एक बार आता
क़ैद कर लेती वो लम्हे तमाम
जो गुजारा था हमने जमाना पहले
जी लेते बचपन के दो चार पल
हम फिर से दोहरा लेते
स्वर्णिम पल ..............!!