घायल हुए कपोत
घायल हुए कपोत
आई यह कैसी सदी, है कैसा दुर्योग।
मानवता की पीठ पर, वार कर रहे लोग॥
घायल जबसे हो गयी, नैतिकता की छाँव ,
दुराचरण अन्याय का, घर - घर फैला रोग।(1)
नाच रही फुटपाथ पर, नग्न सभ्यता आज।
काठ हुई सम्वेदना, हिंसा के सिर ताज॥
जीभ निकाले घूमती, घृणा द्वेष की चील,
असुरक्षा आतंक के मड़राते हैं बाज।(2)
लोग लोभ मद क्रोध का, मन में भरे विकार।
निज सुख-हित में, झूठ का करते हैं व्यापार॥
बीच भँवर में डूबती, कैसे उबरे नाव,
जब कातिल के हाथ हो, घुनी हुई पतवार।(3)
इधर भूख की आग में, झुलस रहा इंसान।
उधर महल में खा रहे, दूध - मलाई श्वान॥
आया वहशी दौर जब, हुई व्यवस्था पंगु
खुशियों की आशा करे, क्या मजदूर किसान। (4)
मान और सम्मान की धूमिल है तश्वीर।
आपस में अलगाव की, खींची गयी लकीर॥
कल तक जिसने था रचा,रक्तसिक्त इतिहास,
आज वही लिखते मिले,जीवन की तकदीर। (5)
नगर- नगर हर गाँव में, आया था संदेश।
आएंगे अच्छे दिवस और मिटेगा क्लेश॥
किन्तु कागजों पर सदा, खींच प्रगति के चित्र,
जनता को छलते रहे, बदल-बदल कर वेश।(6)
प्रश्न - प्रश्न वाचाल है ं, उत्तर - उत्तर मूक।
दाएँ भी बन्दूक है, बाएँ भी बन्दूक॥
शान्ति और सद्भाव के, घायल हुए कपोत,
काग- राग ने हर लिया, कोयलिया की कूक। (7)
जाने कबसे हो रहा, राजनीति का खेल
अपराधी आजाद हैं, निरपराध को जेल॥
धर्म - जाति के नाम पर, फैलाया आतंक
चुपके से फिर कर गये,आग-हवा का मेल।(8)
दम्भ कपट छल छद्म के,जब -जब उगे बबूल
तब-तब उपवन से हुए,ओझल सुरभित फूल
तरुवर प्रेम - प्रसून का ,काट रहा है कौन,
भाईचारा आजकल, लोग रहे हैं भूल।(9)