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Dipti Agarwal

Abstract

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Dipti Agarwal

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गूँज-उम्र का खेल

गूँज-उम्र का खेल

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आँखों पर अनगिनत उमड़ती ख्वाहिशों की पट्टी चढ़ाये,

मैं बरसो से वक़्त के साथ चोर सिपाही का खेल खेल रहा हूँ,


रोज़ उठके सुबह उसके पीछे भागने शुरू करता हूँ,

कई बार हुआ है ऐसा जब वो हाथ आते आते रह गया,

पर मेरी य खोज आज भी जारी है,


दौड़ते दौड़ते यूँही आज थक के, ज़िन्दगी का हिसाब जोड़ने बैठा, 

आईने में खुद के अक्स से रूबरू हुआ तो यकीन ही नहीं हुआ,


तेज़ी से गुजरते वक़्त के निशाँ बारीकी से उतर आये थे चेहरे के हर हिस्से पे,

आँखों के पास की चमड़ी कुछ झूली सी उढ़री सी लग रही थी,


निगाहों को काले गड्ढो ने बखूबी घेर लिया था,

वो सुर्ख चांदनी सी चमक जो हर वक़्त पेशानी को रोशन करती थी,

वो उम्र की चादर के पीछे छुप गयी है कहीं,


कलमों के पास कुछ एक दो बालों के सिरों में भी सफेदी झिलमिला रही है,

हाँ उम्र का नया पड़ाव मुझे अपनी आगोश में लेने को है,


मोबाइल पे बजती घंटी की आहट ने फिर से वक़्त का गुलाम बना दिया तभी,

और मैं फिर भूल के इन ख्यालों को,

फिर आँखों में ख्वाहिशों की पट्टी बांधे भाग पड़ा वक़्त को पकड़ने,

जाने कब यह चोर सिपाही का खेल ख़तम होगा।


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