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Vijay Kumar parashar "साखी"

Abstract

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Vijay Kumar parashar "साखी"

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पंछी

पंछी

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उड़ने से पहले ही पंख कतर दिये है

इस ज़माने हमें ऐसे जख़्म दिये है


हम पूरे फ़लक को छूना चाहते थे

ज़माने ने इसमें ही छेद कर दिये है


सबने हमें अपना बनकर ही लूटा,

किसी ने न दिया निःस्वार्थ खूंटा


इस जमाने ने उड़ने वाले पंछी के,

ज़ख़्मों पे नमक भर-भर दिये है


उड़ने से पहले ही पंख कतर दिए है

एक मासूम को आंसू बहुत दिये है


फिर भी ये पंछी कभी न रुकेगा,

झूठे लोगों के आगे न झुकेगा,


अपनी काबिलीयत, मेहनत से पंछी ने,

 टूटे परों में भी हौसले भर दिये है


कितना और रोकेगा ये ज़माना,

कितना और टोकेगा ये जमाना,


पंछी इस फ़लक में जलायेगा दीये है

क्योंकि वो श्रम से ही जिंदगी जीये है



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