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Dipti Agarwal

Abstract

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Dipti Agarwal

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गूँज -ख्वाबों की उम्र

गूँज -ख्वाबों की उम्र

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ख्वाबों की उम्र भी 

कितनी छोटी होती है,

हर रोज़ बंध आँखों की 

कोख में पनपते है ,

सूरज के साथ आँख 

मिचोली का खेल खेलने में 

जुट जाते हैं,


कभी इस गली कभी 

उस शहर कभी पर्वतों के पार,

कभी बादलों का घर,

कभी अधूरी सी ख्वाहिशें,

कभी जन्नत के पार , 

उड़ते गिरते फिरते टहलते ,

तय करते मीलों का सफर,

यह इठलाने मचलने का 

किस्सा बेधड़क चल ही 

रहा होता है,

की जाने कब सूरज दबे पाँव 

आके पीछे से धप्पा बोल देता है,

और बेचारे से बेगुनाह ख़्वाब 

सिसक सिसक के 

मौत की घाट उतर जाते हैं



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