गूँज- ठण्ड
गूँज- ठण्ड
सर्दियों के आते ही जब भी तुम अलमारी से कम्बल निकालती हो धूप दिखाने के लिए,
मैं हर बार कलाई पकड़े तुम्हारी
यही दोहराता हूँ,
ज़रूरत नहीं इस बेजान रूई के पहाड़ की मुझे,
तुम्हें बिछा के ओढ़ने में जो रूह को सुकून
मिलता है,
वो गर्मी वो जन्नत सैकड़ों कम्बल नहीं दे
सकते।
अबकी बार इन कम्बलों को अलविदा कर ही दो बस,
कोशिश करूँगा कि मुझे बिछा के
ओढ़ के तुम्हे भी वही रूहे सुकून इजाद हो, जो मुझे होता है
हाँ गर न दे पाऊं सुकून तुम्हारी रूह को मैं,
तो कम्बलों से तुम्हारी मैं भी दोस्ताना
फरमा लूंगा।

