अप्रैल की वो रात..............
अप्रैल की वो रात..............
अप्रैल की उस रात पड़ी बारिश की वो नन्ही बौछारें,
फ्रेम कर रखी है मैंने,
अपनी खिड़कियों के उन धुँधले से आईनों में,
बरसों बीत गये नहीं पोंछा उन्हे,
धूल से लदालद सने पड़े हैं,
आईने से टकरा कर गिरती फैलती उन बूँदों के
निशान चमक रहे हैं आज भी इसमें,
सुर्ख़ लाल रस से सीचे तुम्हारे होठों के निशान आज भी,
साँस लेते हैं, मेरे कमरे के उस पुराने पर्दे के सिरों पर,
हवा के ठंडे झोंके से उड़ कर जब
वो पर्दा तुम्हारे गालों को छू गया था,
और तुमने मुझे उकसाने के लिए उस पर्दे को
बड़े प्यार से उंगलियों में दबोच के,
अपने गुलाबी लबों से छुआ था, वो लम्हा क़ैद है आज भी,
मैं ही नहीं मेरा बिस्तर भी बेचारा,
तुम्हारे नौकीले नाखूनों की,
खुरचन से किए वो गहरे घाव आज भी
अपने सीने पे लिए घूम रहा है,
बस अब ना जलन है उसमे ना खून तक बहता है,
एहसास के कतरे तो उस दिन बह गये थे सारे
जब इसी बिस्तर पे सर टिकाए,
मैं रात भर तुम्हारे जाने के ग़म में अश्क बहाता रहा था,
हर जलन, हर घाव मेरे अश्कों के सैलाब से भर गया था,
मैं आज भी उन्ही यादों की लहरों में बह रहा हूँ,
दिन, महीने , सालों बीत गये, जाने किनारा कब आएगा,
बड़ा लंबा सफ़र तय किया है मैने तुम्हारे इश्क़ में ।