" गुमसुम कविता "
" गुमसुम कविता "
क्या करूँ ?आज कल कविता नहीं बनती ,कुछ रूठी -रूठी सी रहती है कविता मुझसे,
लाख मानता हूँ उसको पर वह मौनता की चादर ओढ़े रहती है !
गुमसुम किसी कोने में मन ही मन बिलखती रहती है !
नज़दीक जाके, उसे सहला के, प्यार से जब मैंने पूछा
तो उसने अपने दर्द बयां किया-“जख्म तो मेरे तन बदन में फैला है ,पर उपचार कहाँ होता है ?
अब कहाँ “दिनकर” यहाँ हैं ? कहाँ है कवियों में वो साहस ,वो चेतना ?
जो मेरे नब्ज को टटोलें असहिष्णुता ,रंगभेद ,हिंसा ,बलात्कार नारी असुरक्षा ,
हिन्दू मुस्लिम की पीड़ा को भला अपने तराजू में तौलें ?
नर संहार बच्चे ,बूढ़े ,औरत का विश्व में हो रहा है !
कवि तो सिर्फ अपनी ख्याति के लिए जदोजहद कर रहे हैं
सब अपनी सही कविता को लिखना भूल गए हैं !!