गुल-ए-बाग़ सा खिलता चेहरा
गुल-ए-बाग़ सा खिलता चेहरा
हर एक चेहरे पर चढ़ता चेहरा,
हर एक चेहरे से उतरता चेहरा।
कितना नायाब नगीना है तेरा,
गुल-ए-बाग़ सा ये खिलता चेहरा।
रोज़ रोज़ वही बात भला कौन सुने,
हँस कर, रूठ कर कह देता चेहरा।
बीच दरिया के पहुँच कर ही जाना,
हवाओं के रुख़ सा बदलता चेहरा।