चढ़ाई तो चढ़ी नहीं ढलान पहले आ गई
चढ़ाई तो चढ़ी नहीं ढलान पहले आ गई
चढ़ाई तो चढ़ी नहीं ढलान पहले आ गई,
जंग में लड़ी नहीं मयान घर पे आ गई।
नीर क्यूं बहा रही उदित सौभाग्य की कृति,
धवल चांदनी पे जो ग्रहण बनके छा गई।
आस आस-पास है न जी रहा विश्वास है,
समुंदरों को पी गई बदली घिर के आ गई।
द्रव्य था न दीप था भाव था न गीत था,
बुझते बुझते ही सही लौ जल के आ गई।