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Bharat Jain

Abstract

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Bharat Jain

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चढ़ाई तो चढ़ी नहीं ढलान पहले आ गई

चढ़ाई तो चढ़ी नहीं ढलान पहले आ गई

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चढ़ाई तो चढ़ी नहीं ढलान पहले आ गई,

जंग में लड़ी नहीं मयान घर पे आ गई।


नीर क्यूं बहा रही उदित सौभाग्य की कृति,

धवल चांदनी पे जो ग्रहण बनके छा गई।


आस आस-पास है न जी रहा विश्वास है,

समुंदरों को पी गई बदली घिर के आ गई।


द्रव्य था न दीप था भाव था न गीत था,

बुझते बुझते ही सही लौ जल के आ गई।



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