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Bharat Jain

Abstract

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Bharat Jain

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मन के नाटक

मन के नाटक

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मन के माणिक बिखरे दिखते

मन के खजाने लुटते लगते


मन के दर्द कभी नहीं घटते

मन के कुएं कभी नहीं भरते


मन की गलियां संकरी संकरी

मन के शिखर अछूते रहते


मन मारीच कभी नहीं मरता

मन के राम तो दिखते-छिपते


मन ही मन का साथ निभाता

मन ही मन को धीर बंधाता


मन के हाथ हमेशा खाली

मन के स्वप्न अधूरे लगते


मन भी भूखा रह लेता है

मन भी ठोकर सह लेता है


मन के धागे उलझे लगते

मन के नाटक सच्चे लगते


पहलवान भी कच्चे लगते

मन के आगे बच्चे लगते



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