गंगा प्यार की - - दो शब्द
गंगा प्यार की - - दो शब्द
तुम्हारे
प्यार की गंगा
जब मुझ अकिंचन के मन के रेतीले
रेगिस्तान को छूती है-
सगर के पुत्रों की आत्मा की तरह
मेरे सैकड़ों सपनों की आत्मा को स्वर्गीय
आनंद देती है-
और
सूने पड़े वीरावन में
तुम्हारे प्यार की लहरें
एक अजीब सी जीने की चाहत भरती हैं-
जैसे हवा में लहराती हुई
तुम्हारी बेशर्म बालों की लटें
चेहरे को चूमते हुए अठखेलियाँ करती हैं-
मेरे बेजान शरीर में
एक सिहरन सी होती है
और निस्तेज पड़ी बाहें तुझे लेने को
आलिंगन में फैल जाती हैं-
तू नागिन सी लहराती
मेरे उंगलियों से साड़ी के आंचल की माफिक फिसल जाती है-
मैं तुम्हारी यादों को
अपनी मुठ्ठी में अक्सर बंद करके कैद कर लेता हूं-
क्योंकि जानता हूं
यह प्यार और मौसम कब बदल जाये
कोई निश्चित नहीं
इसलिये दिल के किले में
दर-ओ-दीवार तुम्हारे प्यार के गारे से
अभेद्य कर लेता हूं-
तुम्हें और तुम्हारे प्यार को
नहीं दूंगा दोष प्रिय
यह हमारी मानवीय क्षुद्र प्रवृत्ति ही ऐसी है,
उनसे ही करते हैं छल, कपट
जो हमारे मरुस्थल को करते हैं अपने प्यार से उर्वरा -
और तुम्हारी कल कल निश्छल, निश्छल
बहती हुई धारा को
करते हैं अपवित्र, अपावन
ठीक वैसे ही जैसे हमने कर दी
अपने हाथों पावन गंगा और नर्मदा -