ग़ज़ल
ग़ज़ल
किसी के इश्क में बदनाम क्यों हो
उन्हीं के बाद मेरा नाम क्यों हो
अगर उनको नहीं मुझ से मोहब्बत
तो फिर बर्बाद मेरी शाम क्यों हो
है वरक़ों पर बहुत क़िस्से फ़साने
मेरा ही एक फ़साना आम क्यों हो
जहाने रंगो बू में है बहुत कुछ
बुरा उल्फत का ही अंजाम क्यों हो
हैं कितने हुस्न के पैकर जहाँ में
उन्हीं का रुख ही फिर गुलफान क्यों हो
उन्हें मोहसिन मैं ऐसे ही भुला दूँ
मेरे हाथों में कोई जाम क्यों हो ।।