इस गुनाह की क्या सजा है
इस गुनाह की क्या सजा है
तूने भी माना है कि
तेरे सिवा मैंने किसीको नहीं चाहा
हर शाम खिड़की पर खड़ी होकर
टकटकी लगाए।
सिर्फ तेरी इक झलक पाने को
बेचैन रहती हूँ
तू ये भी जानता है कि
अब तू ही मेरी पूजा, तू ही मेरा देवता
हर आदत तेरी, हर सांस तेरी
तेरी हर मुस्कान को
पलकों में सजा कर रक्खा है मैंने
मगर आज जब तेरा ख़त पढ़ा
जैसे ख़्वाब सारे बिखर गए
हसरतें रूठ कर दूर चली गई
चाहतों में जो दुनिया बसाई थी
पल में बिखर गयी पतझड़ की तरह
माना कि मुझसे अधिक चाहने वाला
मिल गया होगा तुझे, पर ये तो बता
इसमें क्या खता थी मेरी
किसीको चाहने की अगर ये सजा है
तो मंज़ूर है मुझे ये सजा
काट लूंगी बाक़ी ज़िन्दगी तुझ बिन
मगर ख़त में शायद लिखना भूल गया कि
जो गुनाह तूने किया है, उसकी क्या सजा है।