Ghazal No. 29 चला था जो सफर में तो कोई बार ना था
Ghazal No. 29 चला था जो सफर में तो कोई बार ना था
जो चले साथ हुकूमत के बस वो ही यहाँ आकिल है
जिसने भी उठाई आवाज़ बग़ावत में वो यहाँ बातिल है
गवाह उनका मुख़्तार उनका मुन्सिफ भी उनका और
वो इस गुमाँ में कि उनका अदालत-ए-दिल आदिल है
उठा था जो ख़ुर माज़ी में हमारे नफरत के समंदर से
वो बनके तेज़ाब-ए-अब्र अब हमारे आज पर नाज़िल है
कौन करे तौसीफ़ उसकी जो कराए हकीकत से रू-ब-रू
तमाम कौम तो यहाँ ख्वाबों के सौदागरों की काइल है
बेचा है कुछ यूँ झूठ को यहाँ खबर के सौदागरों ने कि
ज़ालिम खुद को मज़लूम समझे है और मक़्तूल को लगे वो खुद क़ातिल है
लोगों के पैरों तले ज़मीं नहीं और उन्हें ये यकीं वो चल रहे हैं आसमां पर
इस फन में बादशाह-ए-हुकूमत से बड़ा ना कोई काबिल है
ना पूछ अंजाम-ए-सफर उनसे जिन्होंने लगा ली अपनी कश्तियाँ
जज़ीरे के किनारों पर इस वहम में कि ये साहिल है
दिखते नहीं जो गर्दिश-ए-दौराँ की रोशनी में
आसमां में ये तारे मेरी ख्वाइशों की महफ़िल है
चला था जो सफर में तो कोई बार ना था
कल तक जो था मुसाफिर आज वो हामिल है
पढ़ी हर एक किताब पर तेरी आँखें नहीं पढ़ीं
वो शख़्स अल्लामा हो के भी जाहिल है
जो बदन पे ख़िर्क़ा पहने घूमता हूँ मैं ये
औरों के चाक-ए-गरेबाँ छुपाने का हासिल है
उसके कदम मेरे दर तक कभी आये ही नहीं
फिर कैसे कह दूँ कि मेरा तामीर-ए-मकाँ कामिल है
उसकी महफ़िल में जला लिया खुद को बनके चराग़
मगर उसकी निगाह मुझसे अब भी ग़ाफ़िल है।
