सुख दुख का संगम
सुख दुख का संगम
एक दूजे संग डोर बँधी है
सुख दुख का संगम है जिन्दगी
सूख को तो सारे ही पूजते
दुखों की भी तुम कर लो बन्दगी
दुखों का तड़का नहीं लगे तो
सूख का मूल्य जानोगे कैसे
यदि विछोह जीवन में न हो
प्रेम मिलन समझोगे कैसे
चाय में चीनी की मिठास है
पत्ती की कड़वाहट भी
कड़वाहट यदि नहीं घुलेगी
चाय कड़क भी कैसे होगी
माँ जब पीड़ा सहती तब ही
गोदी में उसके शिशु खेले
समुद्र मंथन में पहले विष,
बाद में फिर अमृत निकले
गुलाब की माला पिरोने पर
काँटे भी हाथ छलनी करते
पहले काँटे अलग करें
फिर दामन फूलों से भरते
रात हो कितनी भी अँधियारी
और भले ही बहुत ही काली
प्रातः काल तो नित है आता
साथ में लेकर सूर्य की लाली
वसंत खिले जो जीवन में तो
पतझड़ भी तो आयेगा ही
पर पतझड़ को भी जाना है
उपवन फिर खिल जायेगा ही
यह संसार तो गतिमान है
कोई इसको रोक न सका
तपती दुपहरी में जो लू थी
साँझ ढले चले ठंडी पुरवा
तू भी कैसे रोक सकेगा
सुखों को कैसे पकड़ पायेगा
इनका तो अभिन्न है नाता
इक आयेगा इक जायेगा
