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Archana Saxena

Abstract

4.5  

Archana Saxena

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पिंजरे का पंछी

पिंजरे का पंछी

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ये तन कठोर पिंजरा मानव

आत्मा पंछी का बसेरा यहाँ

इक दिन उसको उड़ जाना है

है उसका पिया ईश्वर वो वहाँ


बड़े जतन से गड़ सुंदर पिंजरा

उसने पंछी को भेजा जग में

था एक अलौकिक प्रकाश भीतर

करता जो उजाला अंतर्मन में


कुछ गुण थे सत्य अंहिसा के

आत्मा को महकाने के लिए

हर पिंजरे के पंछी का पिया वही

हर पंछी को समझाने के लिए


पिंजरे की चमक को देख खोया

वह पंछी पिया को भूल गया

पिंजरे से प्रेम अब गहरा हुआ

वह मोह और मद में झूल गया


जिन गुणों को महकाने आया

 उनको ताले में बंद करा

पंछी ने कपट, छल, द्वेष से ही

अपने पिंजरे को पूरा भरा


जब पिंजरा बना एकमात्र सत्य

वह पिया भी उसको झूठ लगे

उसे धर्म के टुकड़ों में बाँटा

अनगिनत फिर उसको नाम दिए


अब पिया को भी मालूम नहीं

क्या इस नादानी को वह कहे

क्या रोए मूढ़ पंछी पर वह 

या इस अज्ञानता पे वह हँसे


बस सब्र किए वह बैठा है

जब लौट के पंछी आएगा

चाहे प्रेम से चाहे कठोरता से

वह सबक उसे सिखलाएगा


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