सच्ची सखी
सच्ची सखी
ओह आज अचानक फिर से यादों का झंझावात उठा
ये कैसा गहन अंधियारा मेरे दिल के अंदर फिर उतरा
फिर पत्र मिला उसका जो कभी मेरी गहरी सहेली थी
वह जब होती आसपास मेरे, मैं कभी भी नहीं अकेली थी
भावपूर्ण चिट्ठी को पढ़ दिल मेरा आज भर आया था
फिर मिलें के ना हम कभी मिलें यह कहकर उसने बुलाया था
भौतिकता की इस दौड़ में जब मैं आगे बढ़ी, वह छूटी थी
जब जब उसने था पुकारा मुझे मैंने समझा वो कोई खूंटी थी
जो बाँध के रखना चाहती है, इक कदम न बढ़ने देगी मुझे
चौखट पे जो गलती से जाऊँ, फिर राह नहीं सूझेगी मुझे
मैं बढ़ती गई इतना आगे आवाज़ भी फिर न सुनाई दी
सब कुछ देखा इन आँखों ने, बस वह ही नहीं दिखाई दी
इस भीड़ से भरी दुनिया में बड़े अजब से रिश्ते बनाए अब
पर जब किसी रिश्ते को परखा कोई भी यहाँ काम आए न तब
आभासी दुनिया में भी तो नित मित्र हजारों नए बने
झूठी वाहवाही चारों ओर नकली दुनिया के क्या कहने
कपटी दुनिया से मन ऊबा, इक पल में उड़ के पहुँचा जहाँ
सच्ची सखी रस्ता देखे मेरा, वह आज भी मुझे पुकारे वहाँ
ऐसा न हो देर कहीं हो जाए जब तक ये भरम मेरा टूटे
दूर उससे नहीं रह पाऊँ अब दुनिया आभासी भले छूटे
मैं लौटी पुनः वास्तविकता में इक गहन शान्ति मन में छाई
आभासी मित्रों को परे हटा मैंने सच्ची सखी फिर से पाई।