ऊँचाइयाँ
ऊँचाइयाँ
जिन्दगी में
सफलताओं की सीढ़ी पर
चढ़ कर सभी पकड़ना चाहते हैं
ऊँचाइयों के किनारों को-
आंसमा पर कदम रख कर
रोंदना चाहते हैं चमकते हुए चांद -सितारों को-
भला किसे है
उस जमीं की चिंता
जिसने उसके जीवन के लिए
अपनी उर्वरता को किया था
अर्पित - श्वासों की वायू बन कर
उसकी चाहत की खातिर रही समर्पित -
कभी पानी की
बूंदे बनकर तन मन को रही भिंगोती-
कभी तेरे स्वप्नों की खातिर
एक एक पल रही पिरोती-
तेरी राह के
सारे कटंकों का दर्द खुद सह कर
राह को नर्म घास और फूल में बदले-
दो बोल ही तो प्यार के तुसझे मांगे वो पगले-
उन्नति और प्रगति के पथ पर
ऊचाईयों पर जाना बहुत जरूरी है-
लेकिन
मुड़कर अपनी जड़े न देखना
तेरी तो मगरूरी है--।
याद रखिये
जो अपनों को छोड़ ऊंचाइयों पर उड़ जाते हैं-
समय की गर्मी में
एक दिन उनके पर भी जल जाते हैं।