एक उम्र पिघलता हुआ
एक उम्र पिघलता हुआ
पिघलता एक बरफ हूँ
तंग साँसों का संग रह गया
अब ठहरना मुमकिन नहीं
शेष पहर कानों में कह गया।।
अलविदा कहने को जी नहीं
पर वक्त ये बड़ा कुटिल है
मौसम था सुहाना पर कैसे
दाह दहन का संग दे गया।।
खो जाने के बाद वो चुलबुलापन
बुलबुलों के संग मौज-मस्तियाँ
कलम की नोक पे लिखे थे जो
वो आत्म-लिपी कैसे मिट गया।।
लुढ़की गागरी की कुछ बूंदें शेष
प्यास बहुत अब भी बाकी है।
जब उड़ेलना चाहा कांपता पकड़
प्यास प्यासा रहा रस बह गया।।
सूखे होठों ने भी एतराज़ कहा
जीभ के तलाश की अंत तक
शांत रहने की आस अंत हीन
क्लान्त प्रयास खामोश रह गया।।
मेरी छाप अब भी मिट्टी में है
जिंदा रहूंगा ही कयामत तक
तेरे हिस्से का वक्त भी आधे पल
मेरे हिस्से का पौने रह गया।।
एक उम्र पिघलता कह गया।।
