दुःस्वप्न
दुःस्वप्न
अक्सर वह देखती थी एक दुःस्वप्न !
जिसमें वह देखती थी घना बीहड़ वन !!
जिसमें वह देखती थी चीखते भेड़िए…
भौंकते जंगली कुत्ते .…और गहरा अंधेरा,
बहुत डर जाती थी ...पसीने में तर बतर..
होकर ...वह पाती थी स्वयं को एक अजीब
से संसार में जहाँ वह देखती थी अजीबोगरीब
आकृति विचित्र से लोग ....
जिनके चेहरे नजर नहीं आते थे...
जो भटकते हुए नज़र आते थे....
जो अपने अधूरे कर्म को न कर पाने के लिए...
जो अपनी अंतरात्मा के साथ बिना शरीर के ..
मानो कहीं शून्य में अपने अस्तित्व को खोज रहे थे ।
तब मैं सोचने लगी कि लोग इन बेचारे बिन शरीरी ,
आत्मा बनाम भूत से लोग ...डरते क्यों हैं !
जबकि डरना तो उन लोगों से चाहिए जो दिन के,
उजाले में ही नहीं रात के अंधेरे में काले कारनामे करते हैं !
और हम इंसान बेचारे इन मासूम भूतों से डरते हैं !