सुर्ख़ गुलाबी रंग
सुर्ख़ गुलाबी रंग


वह अक्सर लिखना चाहती थी
अल्हड़ शोख़ मस्ती उस उम्र की
पर वह लिख नहीं पाती थी ...
जब लिखती थी तो जिम्मेदारी
की स्याही से भीगी कलम से
कागज़ में उकेरती थी..
कर्तव्य बहुत सारे ..
वह भी ठहाका मार कर ..
तेज़ हँसना चाहती थी
और गुनगुना चाहती थी वह प्रेम में डूबा गीत
पर जब हँसने की करती थी कोशिश ..तो भी
मुस्कुराहट कहीं खो जाती थी ...
वह होंठों के भीतर से बाहर गीत को ऊँचे स्वर
में सुर ताल लय से गाना चाहती थी ...
पर गीत अक्सर अंतर्मन के भीतर की तह तक
ही सिमट कर रह जाता था ...उसके होंठों से
बाहर गीत नहीं आता था ...
वह भी सामान्य लड़कियों की तरह उछलना कूदना
चाहती थी हिरनी सी ....चंचल नैनों को काजल से
सजाना चाहती थी ...
होंठों को हल्के सुर्
ख़ गुलाबी रंग में रंगना चाहती थी
पर वह जीवन के रंगमंच में ये सब नहीं कर पाती !
क्योंकि कर्तव्यपरायणता की भूमिका में स्वयं के लिए
समय कहाँ मिलता है !
वह अपने मन की कहाँ कर पाई ?
वह सोचती है ....…..
कभी लोग, कभी पति, कभी भाई , कभी बेटे
तो कभी बहु के गणित में उलझ के रह गई !
वह अब भी सुर्ख़ ग़ुलाबी रंग की चूड़ियाँ , साड़ी
या फूल देखती है !
तो अब भी उसकी आँखों में खुशियों की चमक
चेहरे पे सुर्ख़ प्रेम रंग की दमक उमड़ जाती है !
और आसपास खिलखिलाते वह अब भी कहते हैं
" सुनो इस उम्र में भी तुम बहुत ग़जब ढा रही हो
देखो कैसे हमसे शर्मा रही हो "
और वह मन ही मन याद करती है वह भूला हुआ गीत
जो अक्सर वह पहले गुनगुनाया करती थी
और उसे लगता था कि सचमुच प्रेम का रंग गुलाबी है