दर्पण और नारी
दर्पण और नारी
कुछ तो खास है इस दर्पण में,
तेरा हमराज़ है हर खास पल में।
जो तू कह नहीं पाती किसी और से,
पढ़ लेता है तेरे मन के भाव भी ये गहरे।
दर्पण और नारी जीवन है
मानो जैसे समानार्थी एक दूजे के।
जैसे नारी दर्पण है घर के हर कोने का,
हर आंगन की हलचल का गुंजन है नारी।
मगर शांत और झील सी गहरी मगर ठहरी हुई सी,
अपने ही दायरे में सिमटी हुई सी
सबको अंगीकार किए हुए सी।
एक ही आकाश में हजारों सितारे सजाए हुए सी,
दर्पण जैसी सबको आत्मसात किए हुए सी।
