दर्द की आहट
दर्द की आहट
जाने कौन सी वो शाम थी
कि दर्द टहलते- टहलते आया
आहिस्ता -आहिस्ता पैरो से
समा गया था मुझमें कुछ इस तरह से
जैसे रात में, अंधेरे का गहराना
पेड़ों की शाखाओं पे....
अचानक से तेज़ हवाओं का
उन पर कहर ढाहना,
चमकते चाँद को अचानक से...
काले बादलों के द्वारा ढक लेना,
शान्त समुंदर में....
तूफ़ान का जोरों से उठना,
उसी तरह से....
तुम भी जाने कब से बैठे थे
मेरे इंतज़ार में,
और फिर, तुमने कुछ इस तरह लिया
अपने आग़ोश में मुझे...
कि दर्द की सारी बंदिशें टूट कर बिख़र गई,
और फ़िर मैं दर्द से कराह उठती....
और तुम फ़िर और नजदीक आते गए,
जैसे जेठ की दुपहरी में....
किसी बच्चे का सड़कों पे
अपने नंगे पैरो का रखना....
और फ़िर उसकी....
बिलबिलाहट जैसा तुम होते मुझमें महसूस,
मेरी नस नस में लहू के साथ
हो गए थे प्रवाहित,
तुम मुझमें ऐसे जीते....
जैसे सखा बन गए हो मेरे,
मैं चीखती चिल्लाती
और फ़िर....
तुम अपनी दर्द की गरमाहट में,
लेते मुझ में करवटें
तुम्हारे होने से....
मुझे दहाड़ मार के रोने की
मिल गई थी इज़ाज़त,
अब जब भी तुम मुझमें...
तड़पते, मैं जोरों से चीख़ उठती,
और जी भर कर रोती
बड़ा सुकून मिलता....
जब सुसक- सुसक कर रोती,
दर्द की चरम सीमा बढ़ती जाती
और मैं उसी दर्द को हमदर्द बना
उसके आग़ोश में ख़ुद को सुला देती
एक ठंडी दर्द की बयार मुझको थपकी देती
और फ़िर मैं खो जाती सपनों की दुनिया में
कई घंटों के लिये...!!
