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Rashmi Sthapak

Tragedy

4  

Rashmi Sthapak

Tragedy

दोहा-दरबार

दोहा-दरबार

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गर्म तवे सी जल रही,

गलियाँ सब सुनसान। 

रूठ गर्ई ठंडी हवा,

छिपी कहीं नादान।।

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सूरज हँसता जोर से,

दिखलाता है शान।

धरती-अम्बर पर नहीं,

मुझ-सा इक बलवान।।

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जाने किस के कोप से,

बरस रही है आग।

प्यासे-पंछी भूलते,

 सुबह-शाम के राग।।

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जलती-तपती धूप में,

काम करें जो लोग।

जी लेते वो स्वप्न में,

महलों वाले भोग।।

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जले बिना मिलती नहीं,

उनको सूखी साग।

आसमान की आग से,

बड़ी पेट की आग।।

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हरियाली को काटते,

सब कितने अंजान

खुद हम अपनी मौत का,

जुटा रहे सामान।।

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