दोहा-दरबार
दोहा-दरबार
गर्म तवे सी जल रही,
गलियाँ सब सुनसान।
रूठ गर्ई ठंडी हवा,
छिपी कहीं नादान।।
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सूरज हँसता जोर से,
दिखलाता है शान।
धरती-अम्बर पर नहीं,
मुझ-सा इक बलवान।।
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जाने किस के कोप से,
बरस रही है आग।
प्यासे-पंछी भूलते,
सुबह-शाम के राग।।
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जलती-तपती धूप में,
काम करें जो लोग।
जी लेते वो स्वप्न में,
महलों वाले भोग।।
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जले बिना मिलती नहीं,
उनको सूखी साग।
आसमान की आग से,
बड़ी पेट की आग।।
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हरियाली को काटते,
सब कितने अंजान
खुद हम अपनी मौत का,
जुटा रहे सामान।।
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