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Jyoti Deshmukh

Horror

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Jyoti Deshmukh

Horror

डरावना

डरावना

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मानव बन गया क्यों दानव क्यों खलता उसे

एकता और प्रेम अनुराग का वातावरण जहाँ 

सजते है बाजार जहाँ गोलियों बारूद से

कौडियों मोल बिकते जान ईमान इंसानियत का निशाँ न हो जहाँ।


शत्रु ये अमन के उड़ाना चाहते परिंदा शांति इंसानियत का

चुभती है शायद उन्हें अनवरत बरसों से बहती एकता की हवा 

आतंकी हमलों तले वीरों ने सर कटा दिए 

माँ का आंचल कफन बना, अर्थी को पिता का कंधा मिला 

कितनी मांगे उजाड़ गए, घर का दीपक बुझ गया, पिता का सहारा छिन गया 

एक बहन से भाई दूर हो गया 

मरी हुई ज़मीर तुम्हारी मर गई इंसानियत जहाँ 


हर साँस बद्दुआ दे रही, हर कोई कोस रहा इस मौत के सिलसिले को

जरा तू ठहर सोच जरा तूने अपनी मासूमियत खोई तूने खोया ईमान जहाँ 

इंसान की रूह काँप गई हो जहां 

भाईचारा दूर हो, जहाँ बैर हो जाती धर्म के नाम से

हमेशा करते वार आतंक के हथियारों से जहां 


आंखें देखती भयावह दृश्य बारूद के विष भरी हुई दुर्गन्ध,

मानव के शरीर के चीथड़े जहाँ 

डर जाती आखें देखकर वीभत्स दृश्य जहाँ 

रक्तरंजित लाशों में चीखते भागते लोगों का हुजूम कर देते

विचलित अंतर्मन को जहां 

सामने होते अखबार के चित्र पन्ने रक्तरंजित पंक्तियों से भरे बदरंग लिखी  

कहानी जहाँ 

इंसानियत शर्म सार होती हमेशा के लिए जहाँ।


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