डरावना
डरावना
डरावना था वो मंज़र
जब कच्ची कलियां
ज़ोर -ज़ोर से रो रही थीं,
मुंह में दबाए खूंखार भेड़िया
उन्हें निर्ममता से नोच रहा था
और उसकी हरेक पंखुड़ी को
निर्दयता से कुचल रहा था
जीवन की भीख मांगती
वो मासूम कली,
असहाय, बेबस, निर्बल
चीखती रही पुकारती रही
मगर दानव बना भेड़िया
अट्टहास लगाता हुआ
अभिमान से सिर उठाए
चलता जा रहा था, आगे
बढ़ता जा रहा था......
चलते-चलते पहुंच गया
वो एक सुनसान जंगल में,
जहां बलपूर्वक अबोध को घसीटते हुए
वो अपनी शक्ति का प्रमाण दे रहा था,
लहू से लथपथ निर्दोष कली का
हर अंश चीत्कार कर रहा था,
लेकिन दरिंदा बना भेड़िया
उसकी आवाज़ को दबा कर
अपनी भूख मिटाने में लगा हुआ था
न डर उसे समाज का
न अफसोस अपमान का
है तो बस दरिंदगी,
खुमार है अभिमान का
ऐसे एक नहीं कई भेड़िए हैं
जंगल के बाहर घूमते हुए
जो कल, आज और कल
हर पल न जाने कितने
मासूमों की देह का
शोषण करते हैं
नाज़ुक - सी कली
की आबरू लूट कर
उसके अंगों को
क्षत - विक्षत कर
फेंक देते हैं कहीं,
झाड़ियों के पीछे,
कहीं सूखे कुएं में,
कहीं नदी - नाले में,
इस डरावने हादसे के बाद
पूरी बगिया उजड़ गई थी
बिखर गई थी, सहम गई थी,
मुरझा गई थी, अन्य कलियां
आपस में वार्तालाप करती थी
वृक को आता देखकर
कलियन करे पुकार
नोच-नोच सबको खा गया
कालि हमारी बार
सब तरफ से टूट पड़े हैं
राक्षस, करते अत्याचार
न खिल सकते, न जी सकते
ये दुविधा बड़ी अपार.......।