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दयाल शरण

Drama Tragedy

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दयाल शरण

Drama Tragedy

दौड़

दौड़

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आरजू आसमान हुई जाती है

साँसें बेजान हुई जाती है।


सीढ़ियाँ हैं कि ख़त्म ही नहीं होती

तरक्की भी अब भगवान हुई जाती है।


उंगलियाँ छोड़ कर भागता बचपन,

फिसल-पट्टी सा फिसलता बचपन।


पिता के कंधे की सैर के वय में

भारी बस्तों में दब गया बचपन।


दायरों को दर-किनार कर

भीड़ में खो गया क्यूँ मन।


घर तो अब सांय-सांय करता है

किन बाजारों में खो गया यह तन।


फिर मिलूँ तो पहचान भी लेना

मुझको ऐ दोस्त,


मैं तुम्हारा बचपन हूँ, जवानी हूँ

बस बुढ़ापे में ढल गया यह तन।


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