दामिनी
दामिनी
नारी जो कभी रही दुर्गा,
क्यों आज ‘दामिनी’ बन उभरी,
जो सबको जीवन देती है,
उस ‘जीवन’ ने क्यों आह भरी।
क्यों उसकी आंखों में आंसू,
जो सब के आंसू पीती है ,
क्यों ढूंढ रही अपना वजूद,
सबके सुख को जो जीती है।
क्यों धधक रही उसकी छाती,
जो ममता का मंदिर होती है,
वाणी उसकी कुमलहा सी गई,
जिनसे ये अखियाँ सोती हैं।
फूलों सा गुलशन है वो जो ,
किस बात से इतना आहत है ,
रंग महक भौरों से अधिक,
अब कांटो की इसको चाहत है,
क्यों अब भी भूखी पशुवत आखें,
कपड़े की बटने तकती हैं,
इस राम कृष्ण के देश में क्या,
अब ये चीर हरन कर सकती हैं।
बहुत हुई चर्चा अब तक,
इस पर वादे कई हज़ार हुए,
पर फिर तार तार है मर्यादा,
हम फिर फिर शर्मसार हुए,
अब हर आंख फोड़नी होंगी वो,
जो बहन बेटियां तकती हैं,
सब हाथ काटने होंगे वो,
जिनसे मां बहने लुटती हैं।
इसके खातिर आगे आकर
इक लहर क्रांति की लाना है
रक्षित हो अपनी मां बहनें,
ऐसे कानून बनाना है।