मंहगाई रे मंहगाई
मंहगाई रे मंहगाई
महंगाई रे महंगाई,
खूब सताए महंगाई,
बड़े बड़े महात्मा आए,
फिर भी रोक ना इसको पाए,
गरीबों की है जान ये लेती,
किसानों के भी प्राण हर लेती,
इस पर किसी का ना चलता वश,
इसके समक्ष हैं सभी बेबस,
इसके दम पर हैं, सरकार बदलती,
फिर भी यह जस कि तस बढ़ती,
यह है इस कलियुग की सुरसा,
मुंह फाड़े है गरीबों को निगलती।।
