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Dinesh Dubey

Abstract Tragedy

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Dinesh Dubey

Abstract Tragedy

मंहगाई रे मंहगाई

मंहगाई रे मंहगाई

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महंगाई रे महंगाई,

खूब सताए महंगाई,

बड़े बड़े महात्मा आए,

फिर भी रोक ना इसको पाए,


गरीबों की है जान ये लेती,

किसानों के भी प्राण हर लेती,

इस पर किसी का ना चलता वश,

इसके समक्ष हैं सभी बेबस,


इसके दम पर हैं, सरकार बदलती,

फिर भी यह जस कि तस बढ़ती,

यह है इस कलियुग की सुरसा,

मुंह फाड़े है गरीबों को निगलती।।



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