बुढ़ापा और गुजरता साल
बुढ़ापा और गुजरता साल
जानती हूँ आने वाला कल भी ऐसा ही होगा
कुछ नहीं बदलेगा
जीवन की किताब से एक पन्ना और कम हो जाएगा
जो था जैसा था बस यूँ ही गुजर जाएगा...
वक़्त की दरिया में उम्र का पहरा लग जाएगा
झरोखों से ताकतें ताकतें
जीवन का सफर यूँ ही गुजर जाएगा
छलकती आँखों से सपने यूँ ही बिखर जायेंगे.....
बालों की सफ़ेदी थोड़ी और बढ़ जाएगी
चेहरे की झुर्रियों में उम्र की रेखा दिख जाएगी
अपनों से दूरियों की सीमा थोड़ी और बढ़ जाएगी
लबों पे खामोशी की चादर फैल जाएगी
अपनों की भीड़ में अकेले खड़े रह जाएंगे.....
दर्द की पहरी पर साल दर साल यूँ ही गुजर जाएंगे
क्योंकि बुढ़ापे में ना कोई उमंग नहीं होती
ना कोई रंग होता है
ना कोई संग होता है
ना कोई हाथ होता है
होता है तो साल दर साल
और उसमें लिपटी तनहाइयां
जो इंतजार करती है मृत्यु की.....!
