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Sangeeta Gupta

Abstract Tragedy

4  

Sangeeta Gupta

Abstract Tragedy

मैं अर्धांगिनी थी तुम्हारी

मैं अर्धांगिनी थी तुम्हारी

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अक्सर बिखर सी जाती हूं खुद में 

फिर सिमट जाती हूँ खुद के आगोश मे 

काश जो होता तुम्हारी बाहों का घेरा 

तो निखर सा जाता मेरा मन मटमैला


थक गई हूँ अपने दायित्वों को समेटते समेटते 

उलझ गई हूँ अपने ही रिश्तों के दायरे में 

काश कह जो देते अपने मुख से 

" मैं हूँ तुम्हारे साथ हर क्षण हर घड़ी "


तो मैं भी सज लेती तुम्हारे नाम से 

करती तुम्हारा इंतजार 

शाम की ढलती प्रहरी की तरह 

आलिंगन से तेरे जोड़ती अपने टूटे मन को 


सहलाती तुम्हारे स्पर्श से 

अपने जीवन के दर्द को 

तुम्हारी शब्दों से लगाती मरहम 

वक्त के छाए सितम पर 


पर हो ना सका ऐसा 

तुम न समझ सके मेरी दुखती रग को 

खोए रहे अपने झूठे 

पुरुषत्व अंहकार मे 


देते रहे धोखा मुझे बार बार 

चटकाते रहे विश्वास की डोर को

और मैं वक्त के सितम से घायल 

हर क्षण टूटती रही 


बिखरती रही 

रोती रही 

बिलखती रही 

आंसुओं संग पिघलती रही 

पर तुम खोए रहे 


सोये रहे 

अपने ही झूठे अंहकार मे 

मैं तो अर्धांगिनी थी तुम्हारी 

आधे सुख दुख की भागी 

पर तुमने तो पूरा दुख 

मेरे ही नाम कर दिया.....


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