बेटियों की किस्मत
बेटियों की किस्मत
ये कली जो घर के आँगन में खिलने लगी है
महकने लगी है फ़िज़ाएँ, बगीचा... भी गमक उठा है
देख के इस नन्हे से फूल को झूम उठा है ये जहां
नई तरंग उठती है जब मासूम आँखों से ख़ुशी छलकती है
ये बेटियों के घर के रौनक के कहकहे हैं साहब
मगर कुछ दरिंदों को भायी नहीं ये हमारी खुशियाँ
जिन आँखों को हंसना था.. लोगों ने रुला दिया
अभी तो शुरू हुई थी जिंदगी, सबने सुला दिया
कब बंद होगी...ये हैवानियत... दिल दहल उठा है
दिल्ली गुस्से से सुलग रही है, क्रोध से खून उबल रहा है
हमारी व्यवस्था आखिर कब तक सोयी रहेगी
बेटियों को कब तक अपने अस्मिता के लिए जान देनी पड़ेगी
है कोई भाई जो इस राखी पर्व में देश की बहनों की सुरक्षा का कसम खाये
हरेक साल राखी भेजती हैं बहनें, इज्जत बचाने को कोई तो आगे आए
समाज में छिपे दुशासन को सामने लाने कोई गोविन्द तो आए
जमाने में लोग बहुत हैं ... मगर बेटियों के आँसू पोंछने वाला कोई नहीं
बहनों की पीड़ा से भाई का दिल पिघलता क्यों नहीं
फौलादी सीने में जो लाल खून दौड़ता था..वो सफ़ेद कब हो गया
बड़ी - बड़ी बातें करने वाला भाई इतना बेबस कब हो गया
