मायूसी
मायूसी
मन की खिड़की बंद पड़ी थी,
पर्दे पे कुछ धूल जमीं थी
दरवाजा भी टूट रहा था,
साथ अपनों का छूट रहा था
ख़्वाबों का जो जाल बुना था,
मायूसे से झूल रहा था
कुछ तिनका को जोड़ तोड़कर,
जीने की जो राह बनी थी
गम के घने अँधेरे में वो,
फूट -फूट कर रो रही थी
रौशनी की कोई चाह नहीं थी,
पास मेरे सिर्फ मेरी साँस बची थी
धू -धू कर जो जल रही थी।

