ऐसा क्यों
ऐसा क्यों
वो भर रहीं सिसकियां जो जननी इस संसार की
जो हैं चमन का फूल और जो डालियां गुलजार की,
सिरमौर है वो इस वतन के इक्कीस के इस दौर में
कहां दब गई किलकारियां सिसकियों के शोर में,
परिजनों से दूर हैं कि वह गमों से चूर हैं
जो डालियां गुलजार कि वो डालियां मजबूर है,
त्याग की उस मूर्ति को नोचते हैं भेड़िए
दामन को चीरते खरोचते हैं भेड़िए,
रावण को हम जलाते दैत्य जिंदा फिर भी हैं
ना छोड़ते प्रवृतियों को कृत्य करते फिर भी हैं ।
रोज़ जलती हैं यहाँ पर लाड़ली बिन आग के
भरती हैं सिसकियां वो बिन दृगों में आब के ?
विडम्बना है कैसी ये कि न्याय है लाचार क्यों ?
मोमबत्ती पर टिका है न्याय का दरबार क्यों ?
दरिंदों की टोलियों का बढ़ता है आलम यहाँ
न्यायालय में पापियों के हमदम न कम यहाँ,
रक्षकों में भक्षकों की हुई है अंकित छवि
जो किरण का स्रोत था कलंकित है वो रवि ।।
