बूढ़ा गुलमोहर
बूढ़ा गुलमोहर
उसका अस्तित्व धराशाई हुआ
जो जान फूंक रहा था सदियों से
आज खुद बेदम, निढाल होकर
सर उठाये ताक रहा आसमां को
वो बूढ़ा ठूंठ गुलमोहर का
पूरी तरह सूख चला आज
लेकिन धीरे से कानों में फुसफुसाती
कुछ कह रही...उम्मीदों की बयार
कि जीवित रहना होगा तुम्हें, क्यूंकि
फिर प्रस्फुटित होगी नहीं कोपलें
फिर फैलेगी तुम्हारी पुष्ट शाखाएँ
फिर होगा तुममें स्फूर्ति का संचार
जल्द ही फिर लौट आएगा बसंत
फिर से तुम हो जाओगे गुलज़ार
तब तक पोषित करती रहेंगी
यूँ ही तुमको ये कोमल लताएं
यूँ ही लिपटी रहेंगी तुमसे
प्रेम से आलिंगन बद्ध होकर
रक्षित करेंगी तुम्हारे आधार को
शायद होकर कर्त्तव्यबोध में लिप्त
कभी अंकुरित हुई थी जो
तुम्हारे ही सहारे क्यूंकि
कहीं न कहीं वो भी साक्षी है
तुम्हारे सुर्ख लाल फूलों की