जिम्मेदार
जिम्मेदार
क्लांत मन से
ज़िम्मेदारियों के कूबड़ की
ऊँचाई रोज़ नापता वो शख्श
जाने किस बात की खलिश
सीने में दबाये रहता है!
जितना झुकता जा रहा
उतना रुकता जा रहा;
एक दिन उठा
ज़िम्मेदारियों की कोठरी का
किवाड़ लगा...चल पड़ा!
ज़िन्दगी से उधार लेकर कुछ पल,
स्मृतियों की पोटली काँधे पर लादे
स्वयं को शीर्ष पर खड़ा पाता है;
कदमताल कुछ तेज़ करता,
ज़मीन नापते,
दिन-रात एक करता हुआ
निश्चिंत अवस्था में दौड़ लगाता है!
यकायक उड़ान भरता है असीमित
न कोई ओर...ना ही छोर
शून्य में पहुंचे हुए
टकराता जाता है…
भ्रम की चट्टानो से;
अंततः एक
विद्रोह काट देता है…'पर' उसके
वेग उसका थम जाता है!
फिर खड़ा है वो वही
जहाँ से चला था…!
क्या ठग लिया गया
या लौट आया स्वतः ही !