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Mamta Gupta

Action

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Mamta Gupta

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बेड़ियाँ

बेड़ियाँ

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बचपन से ही बोझ हूं, ये बोध करवाया।

बेटी हो, घर की दहलीज़ न लांघना, हमेशा से यह समझाया

पंख मेरे काट दिए, संस्कारों की बेड़ियों में बांध दिया।

बहू, भाभी, ननद न जाने कितने टुकड़ों में बांट दिया।

भूलकर अपने ख्वाब सुनहरे, इच्छाओं पर लगाकर पहरे,

जिम्मेदारियों को खड़ी हूं ओढ़े 

खो दिया है, खुद को, अपनो की ख्वाहिशें पूरी करते करते।

घुटन होती है महसूस, तानों के कड़वे घुट पीते पीते।

भूल गई हूँ खुद के अस्तित्व को, खुद के वजूद को,

फिर भी कोई क्यों नहीं समझता मेरे अंतर्मन की वेदनाओं को।

 मन में पल रही ख्वाहिशों को,


जब भी खुद के सपनों की तरफ कदम बढ़ाया

चार लोग क्या कहेंगे, हमारी इज्जत का तो ख्याल रख, सबने यही सब सुनाया।

अब मौन हो चुकी मन की सारी अभिलाषाएं

खंडहर हो गई थी रिश्तों की परिभाषाएं।


अब बस खुद को बन्द कर दिया है, घर की चारदीवारी में।

क्योंकि जब जब खुद के लिए मैंने आवाज उठाई।

न जाने कितने अपशब्दों की बौछार होती पाई।

आज भी समाज ने स्त्रियों के पैरों में गुलामी की बेड़ियाँ हैं पहनाई।



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