बदलते चलन
बदलते चलन
मौन चौक के पनघट देखे
गगरी कलशा रहा नहीं।
चौक पूरना रई मथानी
अब दुख में आँसू बहा नहीं।।
चरण वंदना छछिया लंहगा
रिवाज़ पुरातन बिसर गये,
नूतनता में गया
पुरातन चलन कलन कुछ कहा नहीं।।
व्यष्टि सृष्टि दृष्टी भी बदली
संस्कार आहें भरते।
परम्पराएं रीत पुरातन
पछुआ में घुट घुट मरते।।
गया चलन पुरखों वाला
वो प्रखर शिष्टता दौलत भी,
हाए ! क्या होगी तस्वीर देश की
छिछलापन जँह दम भरते।।