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Shailaja Bhattad

Drama

5.0  

Shailaja Bhattad

Drama

अस्तित्वहीन

अस्तित्वहीन

1 min
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हर शादी पर घर में दीवार उठने लगी।

कमरे का आकार घटता गया

और दुखों का साया बढ़ता गया।

अब सबसे छोटे की बारी थी।


लेकिन कमरे के आकार को छोटा करने की

कोई गुंजाइश ही नहीं बाकी थी।

नया घर खरीदें इसकी संभावना भी आधी थी।

फिर क्या था संस्कारों की बली चढ़ी।


सबकी निगाहें बढ़ती हुई झुर्रियों पर टिकी

और देखते ही देखते वृद्धाश्रम की जनसंख्या बढ़ी।

बरगद का पेड़ कट चुका था।

शाखाओं का नैतिक मूल्य गिर चुका था।

सुरक्षा कवच फट चुका था।


ये घर, घर तो था पर आशीर्वाद से पोषित न था।

सब रहते तो थे पर अस्तित्वहीन से थे।

अब ये घर घर नहीं

मकान बन चुका था।

जहाँ जीने का अर्थ ही बदल चुका था !



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