अर्ध शतक
अर्ध शतक
जीवन के इस अर्ध शतक में,
कितना कुछ बदलाव हुआ।
जीवन मूल्य बदल गए,
लगता है सब कुछ नया-नया।
त्योहारों पर लगते थे मेले,
कपड़े नए सिले जाते।
आपस में मिल जुल कर,
सब खुशी मनाते इतराते।
रावण दहन और राम लीला,
उत्साह से देखा करते थे।
मिट्टी के फल, गुड़िया, खिलौने,
कुछ पैसों में मिलते थे।
मॉल और मल्टीप्लेक्स नहीं थे,
खेल-तमाशे होते थे,
भालू बंदर साँप का नाच दिखाने,
मदारी सँपेरे होते थे।
जादू और कठपुतली के शो,
सब मिलकर देखा करते थे।
सर्कस में जोकर, जानवर के,
करतब से खुश होते थे।
संयुक्त परिवार का दौर था,
संगी-साथी बहुत से होते थे।
लूडो, शतरंज, साँप सीढ़ी,
कैरम और ताश खेलते थे।
गुड्डे-गुड़िया की शादी होती,
मिट्टी के घरौंदे बनते थे।
छुपम छुपाई और कभी तो,
खो खो खेला करते थे।
आँगन के कोने में एक,
कमरा होता ईंधन के नाम।
कोयला, बुरादा, लकड़ी, उपला,
आता था जलने के काम।
अंगीठी पर पतीली में उफ़न कर,
घंटों दाल पकती थी।
चूल्हे की सोंधी मिट्टी की,
ख़ुशबू में रोटी सिकती थी।
मिक्सी का तब न था जमाना,
सिल बट्टा घरों में होता था।
वॉशिंग मशीन नहीं थी तब
धोबी का जमाना होता था।
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फ्रिज़ का चलन नहीं था,
मिट्टी के घड़े, सुराही होते थे।
या आइस बॉक्स में बर्फ़ से,
पानी, फल ठंडे करते थे।
एसी, कूलर की जगह घरों में,
खस के पर्दे होते थे।
पानी का पाइप लगा जिनको,
सुबह-शाम तब भरते थे।
खस की महक लिए पंखे की,
हवा बड़ी सुहाती थी।
गर्मी दूर भगा कर उसमें,
अच्छी नींद आती थी।
टेलिविजन नहीं था पर,
रेडियो ट्रांजिस्टर होता था।
क्रिकेट कमेंट्री, समाचार,
गाने जिस पर सुनते थे।
मोटर गाड़ी सीमित होती,
रिक्शे ताँगे चलते थे
हवाई यात्रा सुलभ नहीं थी,
छुक-छुक ट्रेन से चलते थे।
मोबाइल था किसने जाना,
फ़ोन भी दुर्लभ होता था।
दूसरे शहर बात करने को,
ट्रंक कॉल करना होता था।
कम्प्यूटर, इंटरनेट जो आया,
दुनिया पूरी सिमट गयी।
सात समुंदर पार बैठ कर
बातें हो सकती रोज़ नयी।
ए.टी.एम. मशीन आने से
पैसा मिलना सरल हुआ।
बैंक की लंबी कतारों में
लगने का चलन खत्म हुआ।
डेबिट-क्रेडिट कार्ड ने आकर,
शॉपिंग का ट्रेंड बदल दिया।
ऑनलाइन शॉपिंग ने जैसे,
जादू का पिटारा खोल दिया।
आगामी वर्षों में जाने,
कितना और आविष्कार होगा।
शुक्र चाँद पर बसने का,
स्वप्न कभी साकार होगा।