कैसा धर्मयुद्ध
कैसा धर्मयुद्ध
आखिर एक इंसान अचानक
आतंकी क्यूँ बन जाता है
कैसी नदी है नफ़रत की
जिसमें वह बह जाता है।
कैसा धर्मयुद्ध है आखिर
जो हिंसा सिखलाता है
खुद की जान देने को
आखिर कौन उकसाता है।
धर्म के सौदागर युवकों को
जन्नत के ख़्वाब दिखाते हैं
खुद वे सभी ऐशों आराम से
अपना जीवन बिताते हैं।
गुमराह हो हज़ारों नौजवाँ
धर्म के नाम बिक जाते हैं
कुछ एक पैसों की खातिर
अपनी जाँ दे जाते हैं।
परिवार से मोह बंधन तोड़
ये आतंकी बनते हैं
बेरहमी से निर्दोषों का
खून खुशी से करते हैं।
मौत की नींद बख़्शने पर
खुदा इनसे हिसाब लेगा
क़त्लो-आम का ये सिलसिला
नफ़रत से न कम होगा।

