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Vijay Kumar parashar "साखी"

Drama Tragedy Classics

4.5  

Vijay Kumar parashar "साखी"

Drama Tragedy Classics

दुनिया कुछ ऐसी है

दुनिया कुछ ऐसी है

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331


हमारी यह दुनिया तो कुछ ऐसी है।

दिखती तो सब चीजे अपने जैसी है।

कोई भी न चीज, यहां तो स्वदेशी है।

सबकी सब चीजें, यहां तो विदेशी है।


गंदगी से ज्यादा, स्वच्छता मैली है।

नदी में पानी से ज्यादा हुई रेती है।

अपनों ने कुछ,यूं दी ठोकरे ऐसी है।

खुद हवन ने लूटी, आजकल वेदी है।


छद्मता की बढ़ी, आजकल अंग्रेजी है।

सादगी की कम हो गई, भाषा देशी है।

गरीबी मे पता चला दुनिया कैसी है।

सच मे, यह दुनिया उल्टे पेड़ जैसी है।


दुनियादारी की कुछ ऐसी खेती है।

बाहर से सब दिखती एक जैसी है।

पर, भीतर नियत भिन्न-भिन्न कैसी है।

हर चमकती चीज नही स्वर्ण जैसी है।


मीठी दवा, सस्ती, कड़वी दवा महंगी है।

यह दुनिया तो सीधो के लिये लेटी हुई है।

यह दुनिया उल्टो के लिये सीधी जैसी है।

भीतर सीधे, बाहर बनो एक टेढ़ी केंची है।


जो सँघर्ष की खाता रोज ही रोटी है।

यह जिंदगी उन्हें फूलों में शूल देती है।

यह दुनिया, भले दिखती एक जैसी है।

पर एक शीशे में, कई तस्वीरें रहती है।


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